बाबा जवना घरी मुअल रहलें, ओकरा बाद गांवे जाए के मौके ना लागल। बाबा गांवहीं पे रहत रहनी। 1990 के आसपास 90 साल के उमर में गुजर गइलें। ईया उनका से दस साल पहिलहीं गुजर गइल रही।
ओ घरी गांवही पे चाचा आ बाबूजी रहत रहे लोग। उ लोग के बियाह शादी हो गोइल रहे। हमनियों के इ धरती पे आ गइल रहीं जा। परिवार बढ़ल, त खाए पीए के दिक्कत होखे लागल। खेती बारी ओतना रहे ना। नौकरी चाकरी खातिर दूनो जाना टाटा अइलन लोग। परिवार गांवहीं पे रहत रहे। पइसा मनीआर्डर जात रहे। दु तीन साल त असहीं चलल। फिर एक बार बाबूजी बीमार पड़लें। उनकर खाए पीए के दिक्कत भइल... त माई टाटा आ गइली देखभाल करे खातिर।
अब जब माई अइली, त देखा देखी चाचियों नाध देली “सब केहू टाटा में रही, आ हम इ लइकन के ले के गांवें रहब, हमरा से अब ना होइ, हमहूं टाटा रहब।“
“एहिजो कुल देखे खातिर सर सवांग चाही नुं।” बाबा कहे लगलन... लेकिन चाची ना मनली। फिर भइल कि सब केहू टाटा चली। ओहिजे रहल जाई। गांवे ताला बंद रही।
बाबा तैयार ना भइलें। कहें लगलें “जेकरा जाए के बाए जा लोग, हम एहिजे रहब।”
कतनो बाबा के कहाइल कि एहीजा रह के का करबs, लेकिन उ मनलन ना। गांव छोड़के शहर में रहे के नामे पे बिदक जास। भइल कि दयादे में एगो उनकर भाई लागत रहलें। उनके भरोसे बाबा के छोड़ल जा सकेला। बाबूजी खुबे निहोरा कइलें, त जाके उ लोग उनकर देखभाल आ खाना खोराकी खातिर तैयार भइल। पांच काट्ठा के खेत रहे। उ खेत अधिया पे दिआइल रहे। उहां से जवन अनाज मिलत रहे, ओकरे लालच में दयाद लोग बाबा के देखभाल करे लागल।
एक बेर बाबा बीमार पड़लें। गोतिया दयाद कातना देखी। चिट्ठी आइल, त बाबूजी उनका के टाटा लिवा ले अइलें... डाक्टर के दिखावे खातिर। तनी ठीक भइलें, त घुमे फिरे लगलें। उनकर मन इहां लागे ना। फिर गांव जाएके सुर बांध लिहलें। चाचा कतनो मनवलें... ना मनलें। गांवे अकेले छोड़लो अब ठीक ना रहे। भइल कि पारा पारी छः महीना चाची गांवे रहिहन, आ छः महीना माई गांवे रही।
दुनो जानी पारा पारी गांवे रहके उनकर सेवा सत्कार कइली जा। सालभर में कबहूं चाचा गांवे जास, त कबहूं बाबूजी। अधिया प जवन अनाज बाबा के खर्चा खातिर दयाद लोग के दियाइल रहे, उ अनाज दयाद लोग देबे के तैयार ना भइल। एक मन धान, आ एक मन गेंहू मिलत रहे। एकरा अलावे तीयन तरकारी। के छोड़ल चाही!
...आ बाबा के एक पेट रहे। कातना खा जास। कुल त दयादे लोग खात रहे। एसे उनका लोग के फायदा रहे। केहू आपन फायदा काहें छोड़ल चाही। खुबे झगड़ा भइल, तब जाके अधिया प के अनाज घरे आवे लागल। कुछुओ बाबूजी आ चाचा टाटा से मनीआर्डर पइसा भेज देत रहे लोग। लइकांइ में हमनियों के माई साथे गांवे रहत रही जां।
माई बतावत रहे “बाबा के नाच देखे के खुबे शवख रहे। उ दलानी में सुतत रहलें। सुन लिहें कि फलनवा गांव में नाच आइल बा, त राते के निकल जइहें। गोंड़ के नाच खुब देखत रहलें। एही से उ गांव छोड़के टाटा ना रहल चहलें। भीखारी ठाकुर के गीत खुबे गावत रहें।”
तीनो महीना ना भईल कि बाबा एकबार फेर से बीमार पड़लें। आ अइसन बीमार पड़लें कि फिर खटीया से उठ ना सकलें। टाटा बाबूजी आ चाचा के चिट्ठी लिखाइल। टाटा चलके इलाज करावे के कहाइल, त टस से मस ना भइलें। कहे लगलें “जीयब चाहे मुअब, अब एहिजा से कतहूं जाए के नइखे।”
(क्रमशः )... (to be continued!)
- आखिर, आगे कवन मोड़ ली ई कहानी?
- ज़मीन- ज़ायदाद पर देयाद लो के नज़र कवन मोड़ ली?
- गाँव से अगीला पीढ़ी के नाता टूटीये जाई, कि कुछ आकी बाकी रही?
लेखक: प्रदीप कुमार शर्मा
अपडेट: 26 जुलाई 2023, 20:48
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